Thursday, January 22, 2015

बहस


१)

कभी कभी एक छोटी सी बहस
बन जाती है चीर –
और लिपटे रह जाते हैं उसमें –
सारी समझदारी –
सारा प्यार –
सारा अपनापन !
अहम् खींचता जाता है उस चीर को
और बारी बारी  से
दु:शासन और द्रौपदी बने हम
होने देते हैं तार तार
रिश्तों की मर्यादा को
और प्रेम
खड़ा रहता है
नि:वस्त्र..!!!

२)


कभी कभी
एक निर्दोष सी बहस
होकर विकराल
बन जाती है एक युद्ध !
जहाँ अहम् के धनुष्य से
चलते हैं तर्कों के तीर !
रिक्त होती जाती हैं संवेदनाएं
करते जाते एक दूजे को लहु लुहान
और रिश्तों को ध्वस्त !


11 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (23.01.2015) को "हम सब एक हैं" (चर्चा अंक-1867)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय राजेंद्र कुमार जी

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  2. सुन्दर....बहुत सुन्दर कविता !!

    अनु

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  3. आपने सही कहा है जी .
    मेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है .
    धन्यवाद.
    विजय

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  4. बहस का अंजाम ऐसा ही होता है,...

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  5. बि‍ल्‍कुल सच कहा..होता है ऐसा ही।

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  6. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  7. बहस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे .. नियमानुसार न हो तो दुखदायी ही होती है ...
    सुन्दर प्रस्तुति है ...

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  8. दु:शासन और द्रौपदी बने हम
    होने देते हैं तार तार
    रिश्तों की मर्यादा को
    और प्रेम
    खड़ा रहता है
    नि:वस्त्र..!!!
    और इंतजार करते हैं फ़िर किसी कृष्ण का...................
    http://savanxxx.blogspot.in

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  9. नकारात्मक बहस रिश्तों को सच ही तार तार कर देती है . बहस वही उचित जो सापेक्ष्य हो .

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